Friday, September 12, 2014

मेरी मातृभाषा - Meri Matrabhasha

आज मैं तुम्हें लिखने में इस्तेमाल कर रहा हूँ. कई बरस बीत गए हैं.

बोलना सुनना तो बहुत होता है तुममें. पर उसमे भी कई शब्दों के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है. ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास उन अर्थों के शब्द नहीं है पर न जाने क्यूँ साधारण से शब्द भी अब तुममे नहीं आते. तुममे लिखना-पढ़ना तो बिलकुल नहीं होता. जंग लग गया है दिमाग के उन कोनों में जहां तुम्हारे शब्द छुपे बैठे हैं. ये लिखते हुए भी मैं कई शब्दों के बारे में सोच में पड़ जाता हूँ. अनिश्चित सा हूँ तुम्हें लिखते हुए.

तुम्हें पढ़ना भी कम हो गया है. स्कूल के बाद तो कभी तुम्हारा कोई उपन्यास ही नहीं पढ़ा. बरसों से अंग्रेजी में ही पढ़ रहा हूँ. एक दूरी सी आ गयी है हमारे बीच. तुम्हें पढ़ना अजीब लगने लगा है. अंग्रेजी का सहारा लेना पढ़ता है. विज्ञान, कहानियां, उपन्यास, सब कुछ अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे स्तर का मिलता है. ज्यादा मिलता है. (अब मुझे ‘स्तर’ ही ध्यान नहीं आया. क्वालिटी और स्टैण्डर्ड ज़रूर दिमाग में आये)


थोड़ा दुःख होता है कि मेरी अंग्रेजी का स्तर तुमसे अच्छा है. मुश्किल विचारों को मैं सिर्फ अंग्रेजी में ही प्रकट कर सकता हूँ. वाद विवाद में अपने आप उसकी तरफ मुड़ जाता हूँ. परायों से बात करने में सबसे पहले अंग्रेजी ही निकलती है. ‘छोटे’ आदमी से तुममे बात होती है. ‘बड़े’ आदमी से अंग्रेजी में.
पर अपनेपन का एहसास तभी होता है जब मैं तुम्हारा इस्तेमाल करता हूँ. विदेश में ज़रूर तुममे बात करता हूँ. अपनों से बात तुमसे ही की जाती है. अब जब भी तुममे कहानियां पढ़ता हूँ, दिल के उस तार को छू जाती हैं जो कोई अंग्रेजी कहानी नहीं छू पाई. अंग्रेजी पिक्चर में जब तक subtitles ना हों, तब तक मुझे पूरी तरह विश्वास नहीं आता कि मैंने सही समझा है कि नहीं. गानों के शब्द समझने के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है.

ऐसा क्यूँ है? क्या ये ज़रूरी है कि अंग्रेजी के करीब आने के लिए तुम्हारा साथ छोड़ना पड़े.
इससे पहले तुम पराई हो जाओ, मैं तुम्हें अपना बनाए रखना चाहता हूँ. वापस पढ़ना चाहता हूँ. लिखना चाहता हूँ. और इसके लिए मुझे अंग्रेजी का साथ नहीं छोड़ना पड़ेगा. और न ही उन भाषा आंतंकवादियों के साथ मिलना पड़ेगा जो शुद्धता और संस्कृति के नाम पर तुम्हें और तुम्हारे चाहने वालों को सीमित रखना चाहते हैं. हो सकता है कि वर्तमान में तुम्हें कुछ शब्द दूसरी भाषाओं से उधार लेने पड़ें. पर वो स्वाभाविक है. उससे तुम्हारा स्तर और अपनापन कम नहीं होता. बढ़ जाता है. और कुछ समय में, वो अपने ही हो जाएंगे.

आधुनिक विज्ञान, विचार और शिक्षा तुम्हारे द्वारा नहीं हो सकती क्या? क्यूँ तुम्हारी किताबों का स्तर निचला रहे? जब हमारा समाचार, सिनेमा और अपनेपन की बातें तुममे हो सकती हैं तो क्या हम तुम्हारा दायरा बढ़ा कर दुनिया के ज्ञान और विज्ञान को व्यक्त नहीं कर सकते? क्या तुम्हारे ही माध्यम से दुनिया को तुम्हारे चाहने वालों के पास नहीं पहुंचा सकते?

कर सकते हैं. मैं प्रयास ज़रूर करूँगा. कुछ और न सही, वापस तुम्हारे करीब तो आऊंगा. 

Wednesday, September 3, 2014

Will you beat me?

We have recently revamped our ‘basti’ library. Xook (pronounced zook) Books is its new name. We are trying everything to spread the word and get kids into the library. We are quite innovative about it too. Our strategy is that we stand on the road, stop kids walking on the road and ask them to come to the library. Does it actually work? Well, it does. A lot of them walk in after asking questions like – "What kind of books?" 
"Is there a fee?"

A few days back, my mother stopped a small boy and asked him to come and explore the library. 
"What's there?"
"It’s a place for you to read." 
The boy was a little skeptical. He asked – 
"I can read anything?!"
"Yes, you can read anything."
"If I don’t read, you will not beat me, will you?"

She was stunned. Speechless. She wanted to embrace him, comfort him and say – 'We will not beat you. Ever!'

Beating children is widespread in India. Everyone does it - parents, relatives, teachers, principals. This report, though slightly old, highlights the issue of corporal punishment. As this article mentions- 

"Despite being outlawed by the Right to Education Act in 2009, corporal punishment continues unabated in India’s schools. Just some headlines from the last few weeks. Jharkhand: "Teacher beats 8 year old to death." Ghaziabad: 6-Year-Old Allegedly Beaten by Teacher For Not Doing Homework. Howrah: "Class Eight Student Allegedly Beaten with Iron Chains by Teacher." One teacher in Kakinada did not even spare visually challenged students, beating them mercilessly."

A couple of days back, a new boy walked into the library. He looked a little lost so our librarian made him sit down and read him a story. After finishing the story, she told him to wander and explore the books. He went through multiple books before choosing one and sat down to read it. It appeared like he was struggling with it. Seeing him struggle, our librarian got up to help him. To get a better look at the book, she moved his hand. His hand automatically turned with palm facing up – prepared to be caned. He pleaded - 
"No. I am reading. Don’t hit me."


When I heard about it, I was disturbed and shocked at the instinctive sense of fear. Violence and fear is ingrained with reading and studying. However, what happened next gave me hope and belief to continue to do what we do. One of our 'Xook-ie' (yes, that's a word) kids looked at him and informed him – 
"Arey! Don’t be scared here. Nobody hits anyone here. You are safe here."

There is just joy of reading here!

This post has also been published on Indiateach - The Indian education blog.